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संतों की इसी श्रृंखला में स्वनामधन्य स्वामी सत्यानंदजी महाराज हुए.
स्वामीजी का जन्म चैत्र शुक्ल पूर्णिमा ( २६ अप्रैल १८६१ ) को हुआ. एकदा साधना के दौरान व्यास पूजा वाले दिन ७ जुलाई १९२५ को उन्हें “ राम नाम “ की प्राप्ति हुई. ७ जुलाई १९२८ से उन्होंने “ नाम दान “ का शुभारंभ किया. उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की. जैसे की : भक्ति प्रकाश, रामायण सार ( बाल्मीकि रामायण का हिंदी में पद्य अनुवाद ), श्रीमद्भागवतगीता का भाष्य इनमे प्रमुख है.
उनके द्वारा रचित “अमृतवाणी” एक लघु ग्रन्थ है जो की गागर में सागर को चरित्तार्थ करते हुए उपनिषदों, रामायण और गीताजी के संदेशों का अद्भुत सार प्रतीत होता है.
स्वामीजी ने ९९ वर्ष की उम्र में १३ नवम्बर १९६० को अपने नश्वर शरीर का त्याग किया.
स्वामीजी के परम शिष्य है भगत श्री हंसराज जी महाराज. परम पूज्य श्री हंसराज जी महाराज को उनके शिष्य प्यार और आदर से “ पिताजी “ कहते है. स्वामीजी ने पिताजी को “ राम नाम “ के प्रसार की जिम्मेवारी दी थी १९३६ और तब से लेकर आज तक अनथक, निस्वार्थ भाव से इस कार्य को अंजाम दे रहे है.
उनका सुरम्य आश्रम “ श्री राम शरणं “ हरयाणा के गोहाना में है.
यहाँ पर प्रत्येक वर्ष की भांति अभी ९० दिनों का अखंड जाप चल रहा है जो ४ मार्च तक चलेगा. इस कार्यक्रम में अपना योगदान करने और सेवा देने अलग अलग शहरों से साधक निरंतर आ कर अपना जीवन संवारने का प्रयास करते हैं.
“ श्री राम शरणं “ में भी आराधना की निर्गुण प्रथा ही है. प्रकृति के अप्रतिम सौंदर्य के बीच में स्थित अष्टकोणीय जाप घर है जहाँ पर साधक बैठकर “ श्री अधिष्ठान जी महाराज “ के सामने अखंड ज्योति की साक्षी में “ राम नाम “ का जप करते हें.
इसके अलावा एक सत्संग कक्ष भी है जहाँ पर प्रातः काल में अमृतवाणी के पाठ का कार्यक्रम होता है. पाठ के पश्चात ध्यान, भजन होते है. दिन की अन्य सभा में भक्ति प्रकाश और रामायण सार से भी पाठ का कार्यक्रम निरंतर होते रहता है.
साधकों के रहने हेतु बंगले और हट है.
आश्रम के प्रांगन से सटकर सेवा हेतु आंख का अस्पताल और प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र : संजीवनी भी है.
फिर लौटकर आते है सत्संग की और
अमृतवाणी के बारे में
शेष फिर.
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