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सगुन पूजा में व्यक्ति को दिशा दिखाने हेतु मूर्ति, पूजन सामग्री आदि होते है. एक दुसरे के यहाँ देखकर और अपनी अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार धीरे धीरे इस पध्धति में आडम्बर रूपी विकार भी आने लग जाते है और अंततः मुख्य पूजा गौण होते जाती है. बिना भव्यता के पूजा करना ही नामुमकिन हो जाता है. कभी कभी खाना पीना मुख्य आयोजन और पूजा पीछे छूट जाती है. यात्रा के दौरान भी आप कुछ करने से वंचित हो जाते है.
दूसरी बात यह भी होती है की एक तरह से सगुन पूजा की अगली गति निर्गुनता ही है. इसको ऐसे समझा जाये की छोटे बच्चे जब शुरू शुरू में स्कूल जाते है तो कई दिन तक रोते है तब उनको स्कूल में टोफ्फी बिस्कुट इत्यादि देकर बहलाया जाता है. इसका यह अर्थ तो नहीं हुआ अगर बच्चा बड़ा हो जाये और उसे स्कूल जाते बरस के बरस बीत जाये तब भी वह इन्ही चीज़ों यानि की बिस्कुट टॉफी के लिए मचले.
एक और स्थिति की छोटे बच्चे भी स्कूल में मैडम या सर से प्रेरित हो जाते है और बड़े होने के पश्चात भी इस से मुक्त नहीं हो पाते.
अब किसी भी हालत में उसे स्कूल से कॉलेज और आगे बढ़ना ही पड़ता है. उसी तरह मेरे हिसाब से कुछ समय के बाद निर्गुण आराधना करना ही उचित जान पड़ता है. क्या व्यक्ति जिंदगी भर नर्सरी स्कूल में ही पड़ा रहे या आगे अपने बल पर बिना किसी बाहरी आडम्बर के अपना उद्धार करे.
धन्य है कबीर साहब और उन सरीखे अन्य संत जिन्होंने निर्गुण आराधना का मार्ग सुझाया.
शेष फिर.
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