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चुनाव के पहले जब अन्ना साहब का अनशन शुरू हुआ तब एक क्षण ऐसा प्रतीत हुआ था की शायद कोई बात बनेगी मगर ऐसा न हो सका,
क्यों
सबसे पहले जब महात्मा गाँधी ने ऐसी शुरुवात की थी तब उनके साथ तब की साफ़ सुथरी कांग्रेस थी एक से बढ़कर एक नेता थे, एक उद्देश्य था
अब ऐसा नहीं है
फिर जब लोकनायक का आन्दोलन हुआ तब उनके साथ छात्र थे और सबसे ऊपर थे नानाजी जैसे निस्वार्थ लोग फिर उनके साथ भिन्न भिन्न दल आये एक जुट हुए जीते कहा दूसरी आज़ादी मिली लेकिन दल फस गए दलदल में और अपनी अपनी महत्वाकांक्षा के चलते लोकनायक के सपने परलोक सिधारे.
आज क्या हो रहा है.
कुछ महीने पहले जब बम्बई कांड हुआ था हाथों में मोमबतियां लिए अमरीकी पद्धति पर विरोध परकत करने निकल पड़े हम
अन्ना साहब के साथ भी यही हुआ फिर वही मोमबतियां वही पद्धति
हमारा सिस्टम है तो लेट लतीफी वाला और हम भी है सुस्त पर हम अपना रहे है अमरीकी पद्धति instant काफ्फी वाली
कैसे काम होगा
ऊपर से अन्ना साहब के साथी भी अजाब गज़ब सी जिद्द पकडे बैठे है
वे संसद के बाहर से चाहते है की उनके मन मुताबिक काम हो संसद के अन्दर यानि चूजे को फिर से अंडे में डालने वाली बात
हमारा संविधान क्या कहता है कोई मतलब नहीं संसद क्या कहती है कोई मतलब नहीं
सिर्फ अव्यवस्था
दो चार लोग उनमे भी कई खुद दागदार
कहाँ है महात्मा और लोक नायक के कर्मठ सहयोगी जैसे लोग
जिस टीम की खुद की credibility नहीं तो कप्तान कितना भी अच्छा क्यों न हो टीम अच्छा खेल ही नहीं सकती
फिर इस चुनाव में जनता उनकी क्यों सुने और कैसे सुने उनके पास कोई विकल्प भी नहीं है सुझाने को
अतः अन्ना factor इन चुनावो में क्या आगे भी बे-असर रहेगा
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